Thursday, 17 May 2018

राजा चोल और विष्णुदास की कथा

एक समय की बात है एक चोल नामक चक्रवर्ती राजा थे। राजा चोल जब भूमंडल पर शासन करते थे। उस समय कोई मनुष्य दरिद्र, दुखी, पाप में मन लगाने वाला नहीं था ।उन्होंने इतने यज्ञ किए थे, जिनकी कोई गणना नहीं हो सकती थी। एक बार राजा चोल अनंतशयन नामक तीर्थ में गए जहांँ भगवान विष्णु योग निद्रा का आश्रय ले सो रहे थे। राजा चोल ने मणि, मोती, तथा सुवर्ण के बने हुए सुंदर फूलों से भगवान का पूजन किया और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। प्रणाम करके वे जैसे ही बैठे उसी समय उनकी दृष्टि एक ब्राम्हण पर पड़ी। उसका नाम विष्णुदास था ।वे भगवान की पूजा के लिए अपने हाथ में तुलसी दल और जल लिए हुए थे।
 निकट आने पर ब्रहर्षि ने विष्णु सूक्त का पाठ करते हुए भगवान को स्नान कराया और तुलसी के पत्तों से  विधिवत् पूजा की।
 राजा चोल ने जो पहले रत्नों से भगवान की पूजा की थी, वह सब तुलसी-पूजा से ढक गये। यह देखकर राजा क्रोधित हुए और बोले- विष्णुदास! मैंने मणियों से तथा सुवर्ण से भगवान की पूजा की थी। वह कितनी शोभा पा रही थी। किंतु तुमने तुलसीदल चढ़ाकर सब ढक दिया। बताओ ऐसा क्यों किया ?
मुझे जान पड़ता है ,तुम बड़े मुर्ख हो भगवान विष्णु की भक्ति को बिल्कुल नहीं जानते हो तभी तो तुम ने अत्यंत सजी सजाई पूजा को पत्तों से ढक दिया। तुम्हारे इस बर्ताव पर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।
विष्णुदास ने कहा- राजन्! राजलक्ष्मी के कारण आप घमंड कर रहे है।
राजा ने कहा- ब्राम्हण! तुम विष्णुभक्ति से अत्यंत गर्व मे आकर यह बात कह रहे हो तुम तो दरिद्र हो ,निर्धन हो ।तुमने विष्णु भगवान को संतुष्ट करने वाले यज्ञ और दान आदि कभी नहीं किए हैं।
 राजा ने कहा यहांँ जितने भी श्रेष्ठ ब्राह्मण बैठे हैं ध्यान से सुने अब देखते हैं कि हम दोनों में से सबसे पहले भगवान विष्णु किसे दर्शन देते हैं इस से ज्ञात हो जाएगा कि हम दोनों में से किसमें ज्यादा भक्ति है।
यह कह कर राजा चोल अपने राजभवन को गए और उन्होंने महर्षि मुद्गल को आचार्य बनाकर वैष्णव यज्ञ का अनुष्ठान किया। जिसमें बहुत से ऋषि समुदाय एकत्रित हुए। बहुत सा अन्न खर्च किया गया और दक्षिणा बांँटी गयी।
 उधर विष्णुदास भी भगवान के मंदिर में ठहर गए। और भगवान विष्णु को संतुष्ट करने वाला शास्त्रों के नियमों का भली-भांँति पालन करते हुए व्रत का अनुष्ठान किया। माघ और कार्तिक के व्रत ,तुलसी के बगीचे का भली-भांँति पालन ,एकादशी व्रत , द्वादशक्षर मन्त्र का जप तथा गीत-नृत्य आदि मांगलिक उत्सवो के साथ प्रतिदिन श्री विष्णु की पूजा यही उनकी जीवनचर्या थी। वे संपूर्ण प्राणियों में भगवान विष्णु को देखते थे।
 इस प्रकार राजा चोल और विष्णुदास दोनों ही भगवान विष्णु की आराधना में लगे हुये थे।
एक दिन की बात है विष्णुदास ने नित्य कर्म करने के पश्चात भोजन तैयार किया । किंतु उसे किसी ने चुरा लिया। चुराने वाले पर किसी की दृष्टि नहीं पड़ी।
 विष्णुदास ने देखा भोजन गायब है फिर भी उन्होंने दोबारा भोजन नहीं बनाया। क्योंकि ऐसा करने पर वे सायंकाल पूजा नहीं कर पाते। उन्हें पूजा करने का समय नहीं मिलता। दूसरे दिन उसी समय पर भोजन बना कर वे जैसे ही भगवान विष्णु को भोग लगाने के लिए गए ।वैसे ही किसी ने आकर फिर से सारा भोजन चुरा लिया ।विष्णुदास मन में सोचने लगे- यह कौन प्रतिदिन आकर मेरा भोजन चुरा लेता है ?
यदि मैं दोबारा भोजन बनाकर भोजन करूँ तो सांयकाल की पूजा के लिए समय नहीं बचेगा। मै क्षेत्र-संन्यास ले चुका हूँ अतः इस स्थान का परित्याग नही कर सकता। अब मैं अपनी रसोई की भली- भाँति रक्षा करूंँगा। यह विचारकर भोजन बनाने के बाद वे वहीं छिपकर खड़े हो गए। इतने में एक चाण्डाल दिखाई दिया ,जो रसोई का भोजन ले जाने के लिए तैयार खड़ा था। उसका शरीर अत्यंत दुर्बल था। उसके शरीर में हड्डियों के सिवा और कुछ नहीं बचा था। उसे देखकर विष्णुदास करुणा से व्यथित हो उठे। और उससे कहा- भैया! जरा ठहरो ,ठहरो! क्यों रुखा-सुखा खाते हो घी तो ले लो। चाण्डाल ने जैसे ही विष्णुदास को देखा वह बड़े वेग से भागा और भय से मूर्छित होकर गिर पड़ा।
 उसे मुर्च्छित देखकर विष्णुदास उसके पास गये और अपने वस्त्र के किनारे से उसे हवा करने लगे।
जब वह उठकर खड़ा हुआ तो विष्णुदास ने देखा- वह चाण्डाल नहीं साक्षात् भगवान नारायण है जो शंख ,चक्र, गदा धारण किए हुए है कमर में पीताम्बर, चार भुजाएं, हृदय में श्रीवत्स का चिन्ह तथा मस्तक पर किरीट शोभा पा रहा था। अलसी के फूल की भाँति  श्याम सुंदर का शरीर और कौस्तुभमणि से जगमगाते हुए वक्षःस्थल की अपूर्व शोभा हो रही थी। अपने प्रभु को प्रत्यक्ष देखकर विष्णुदास भावों के वशीभूत हो गए। और विनती और नमस्कार करने में भी समर्थ ना हो सके। भगवान विष्णु ने सात्विक व्रत का पालन करने वाले अपने भक्त विष्णुदास को हृदय से लगा लिया। सब देवता इन्द्र सहित वहां आ पहुंँचे। भगवान विष्णु ने विष्णुदास को अपने जैसा ही सुन्दर रूप दिया और उन्हे लेकर वैकुण्ठधाम चले गये।
 उस समय यज्ञ कर रहे राजा चोल ने देखा कि भगवान श्री हरि विष्णुदास को अपने धाम लेकर जा रहे हैं। यह देखकर उन्होंने अपने गुरु महर्षि मुद्गल को बुलाया और कहा।
 राजा बोले- यज्ञ दान आदि कर्म का अनुष्ठान करने पर भी भगवान विष्णु मुझ पर प्रसन्न नहीं हुए है और विष्णुदास को भक्ति के कारण श्री हरि ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए है। अतः भगवान विष्णु केवल दान, यज्ञो से प्रसन्न नहीं होते प्रभु का दर्शन करने के लिए भक्ति का होना परम आवश्यक है।
यह कहकर राजा ने अपने भांजे को राज्य सिंहासन पर बिठा कर राज्यभिषेक कर दिया। भांजे को राज देने के बाद राजा यज्ञशाला में गए और यज्ञ कुण्ड के सामने खड़े होकर भगवान श्रीहरि से कहा- आप मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा स्थिर भक्ति प्रदान करें। यह कहकर वे अग्नि में कूद पड़े।
उन्हें अग्नि में जाते देख मुद्गल मुनि ने क्रोध में आकर अपनी शिखा उखाड़ दी। तभी उस गोत्र में उत्पन्न होने वाले समस्त मुद्गल ब्राम्हण बिना शिखा के रहते हैं।
जैसे ही राजा ने अग्नि में प्रवेश किया भगवान विष्णु प्रकट हो गए और उन्हें अपने हृदय से लगा कर अपने समान रूप देकर देवताओं सहित उन्हें वैकुण्ठ धाम ले गए।

Wednesday, 16 May 2018

त्यागमूर्ति महर्षि लोमश

 एक बार नारद जी ने अर्जुन को शिव आराधना का महत्व बताया और शिव जी के अद्भुत महात्म का वर्णन किया-
नारद जी ने कहा- पाण्डुनन्दन! प्राचीन काल में इस पृथ्वी में इन्द्रघुम्र नाम के प्रसिद्ध राजा रहा करते थे। वे बड़े दानी एवं संपूर्ण धर्मों के ज्ञाता थे। कोई भी ऐसा नगर ,ग्राम अथवा शहर नहीं था जहांँ राजा इन्द्रघुम्र ने धर्मानुष्ठान ना किया हो। उन्होंने बाह्मविवाह की विधि से अनेक बार कन्यादान किया था। महाराज इन्द्रघुम्र के पुण्यों की गणना की जा सके ऐसा संभव नहीं था।
ऐसे पुण्यों के प्रभाव से राजा इन्द्रघुम्र अपने मानव शरीर से ही विमान पर बैठकर ब्रह्मा जी के लोक में जा पहुंचे और वहांँ देवदुर्लभ भोगो का उपभोग किया। इस प्रकार अनेक कल्प बीत जाने पर ब्रह्मा जी ने अपने लोक में निवास करने वाले राजा इन्द्रघुम्र से कहा- राजन्! अब तुम पृथ्वी पर जाओ।
राजा ने ब्रम्हाजी की बात सुनी और वे पृथ्वी पर आ गए। उसके बाद राजा इन्द्रघुम्र मार्कण्डेय मुनि,बक, प्राकारकर्ण उलूक ,चिरायु गीधराज एवं मन्थर कछुए से मिले और वे बोले- ब्रह्मा जी ने मुझे अपने लोक से निकाल दिया इसलिए मैं लज्जित हूंँ अब मैं चाहता हूंँ कि पाप और अविद्या का नाश करने वाले विवेक वैराग्य का आश्रय ले मोक्ष के लिए यत्न करूंँ। अगर आप अपने घर पर आए मुझ अतिथि का सत्कार करना चाहते हैं तो मुझे ऐसे गुरु का पता बता दीजिए जो मुझे इस संसार -सागर से पार कर देने वाला हो।
कछुए ने कहा- राजन्! लोमश नाम वाले एक महान मुनि है, जिनकी आयु मुझ से बड़ी है।
इन्द्रघुम्र ने कहा- तब तो चलिए, हम सब लोग साथ ही उनके पास चले।
नारद जी ने अर्जुन से कहा- तब उन सब ने कलाप- ग्राम में पहुंँचकर महामुनि लोमेश के दर्शन किए। तीनों काल स्नान करने से उनकी जटाएंँ कुछ पीली पड़ गई थी ।उन्होंने छाया करने के लिए अपने बाएंँ हाथ में एक मुट्ठी तिनके ले रक्खे थे और दाहिने हाथ में रुद्राक्ष की माला धारण कर रखी थी। राजा, मार्कण्डेय मुनि, बक, उलूक, गीधराज, और कछुए ने कलाप- ग्राम मे उन महात्मा के का दर्शन करके उनके चरणों में प्रणाम किया ।मुनि ने भी आसन आदि देकर स्वागत सत्कार किया।
कछुए ने कहा- भगवन्! यज्ञ करने वाली पुरुषों में अग्रगण्य महाराज इन्द्रघुम्र है वसुधा में इनकी कीर्ति का लोप हो जाने से ब्रह्मा जी ने इन्हे निकाल दिया है ।अब आप के अनुग्रह से ये मोक्ष पाना चाहते है। अतः आप इन्हें अपना शिष्य समझें और इनके प्रश्नों का उत्तर दें।
लोमश जी ने कहा- राजन्! तुम्हारे मन मे क्या सन्देह है हमे बताओ।
राजा इन्द्रघुम्र ने कहा- भगवन्! मेरा पहला प्रश्न है कि गर्मी का समय है सूर्य देव आकाश के मध्य में आ गए हैं, तो भी आपने अपने लिए कोई कुटी क्यों नहीं बनाई ,क्यो आप अपने हाथ में तिनके लेकर अपने मस्तक पर छाया किए हुए हैं।
लोमश जी ने कहा- राजन्! एक दिन मरना अवश्य है यह जो कुछ दिखाई देता है सब क्षणभंगुर है इस प्रकार संसार को असार और चलायमान जान लेने पर किसके लिए कुटी आदि का संग्रह किया जाए।
इन्द्रघुम्र ने कहा- भगवन्! तीनों लोकों में केवल आप ही चिरायु सुने जाते हैं ,फिर आपके मुंँह से ऐसी बातें क्यों निकलती है?
लोमेश जी ने कहा- राजन्! प्रत्येक कल्प मे मेरे शरीर से एक रोम टूटकर गिर जाता है जिस दिन मेरे सब रोएँ नष्ट हो जाएंगे। उस दिन मेरी मृत्यु हो जाएगी देखो मेरे घुठने में दो अंगुल तक रोएँ खाली हो गए हैं इसलिए मैं डरता हूंँ जब मरना ही है तब घर बनाकर क्या होगा।
इन्द्रघुम्र ने कहा- भगवन्! आपको इतनी बड़ी आयु प्राप्त हुई है ये दान का प्रभाव है या तपस्या का?
लोमश जी ने कहा- राजन्! सुनो मैं अपने पूर्व जन्म का प्रसंग सुना रहा हूंँ।
 पूर्वकाल में मैं अत्यंत दरिद्र होकर उत्पन्न हुआ था उस समय भूख से बहुत पीड़ित होकर पृथ्वी पर भ्रमण कर किया करता था।
 एक दिन दोपहर के समय जल के भीतर मैंने एक बहुत बड़ा शिवलिंग देखा। फिर जलाशय में प्रवेश कर जल पीया और स्नान किया फिर कमल के सुंदर फूलों से शिवलिंग का पूजन किया ।भूख से मेरा गला सूखा जा रहा था ।भगवान नीलकण्ठ को नमस्कार कर मैं आगे चल दिया मार्ग में ही मेरी मृत्यु हो गई।
फिर दूसरे जन्म में मैं ब्राह्मण के घर में उत्पन्न हुआ। एक ही बार शिवलिंग को नहलाने और पूजा करने से मुझे अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण रहने लगा। यह संपूर्ण जगत जो सत्य सा प्रतीत हो रहा है मिथ्या है। ऐसा जानकर मैंने मौन धारण कर लिया। मेरे माता- पिता के मन को महामाया ने ममता मे बांँध रखा था। इसलिए उन्होंने मेरा गूंगापन दूर करने के लिए बहुत उपाय किए ।जब मैं जवान हुआ तो रात को घर छोड़कर निकल जाता और कमल के फूलों से भगवान शिव की पूजा कर पुनः शयनस्थान पर लौट आता था।
पिता की मृत्यु हो जाने पर मेरे सम्बन्धियो ने मुझे गूंगा समझकर त्याग दिया।इससे मुझे प्रसन्नता हुई कि अब मैं किसी मोह माया में नहीं फँस पाऊंँगा। और मैं फलाहार रहकर भांँति-भांँति के कमलों से शिव जी का पूजन करने लगा। इस प्रकार सौ वर्ष बीत गए। तब भगवान भोलेनाथ ने मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दिए।
 मैंने उनसे याचना कि- भगवान मेरी वृद्धावस्था और मृत्यु का नाश हो।
 तब भगवान शिव बोले- जो नाम और रूप धारण करता है वह सर्वथा अजर-अमर नहीं हो सकता।अतः तुम अपने जीवन की कोई सीमा निश्चित करो।
भगवान शिव का वचन सुनकर मैंने वरदान मांँगा- प्रत्येक कल्प के अंत में मेरे शरीर का एक रोम गिरे और सब रोम गिर जाने पर मेरी मृत्यु हो, उसके बाद मैं आपका गण बनूँ यही मेरा अभीष्ट वर है ।
अच्छा ऐसा ही होगा यह कहकर भगवान शिव अदृश्य हो गए ।और मैं भी तब से तपस्या में संलग्न हो गया। महाराज तुम भी भगवान शिव की आराधना करो जिससे तुम अपनी मन चाही वस्तु प्राप्त कर लोगे। भगवान शिव के भक्तों के लिए त्रिलोक में कुछ भी दुर्लंभ नहीं है। राजन्! जो भगवान शिव को मस्तक झुकाते हैं वह निश्चय ही उन्हें प्राप्त कर लेते है।

  

Saturday, 5 May 2018

शिव जी के परम भक्त श्रीकर की अद्भुत कथा

जिसके हृदय में भगवान शिव की लेशमात्र भी भक्ति होती है वह व्यक्ति समस्त जीवों के लिए वंदनीय होता है। भक्त श्रीकर गोप शिव जी के अनन्य भक्त थे उनकी कथा का वर्णन स्कंद पुराण में है उनकी कथा इस प्रकार है।-
उज्जयिनी में चंद्रसेन नाम के राजा रहते थे। ये उसी नगरी में निवास करने वाले महाकाल का पूजन करते थे। शिव जी के पार्षदों में अग्रण्य विश्ववंदनीय मणिभद्र राजा चंद्रसेन के मित्र थे। उन्होंने राजा से प्रसन्न होकर उस समय उन्हें दिव्य चिंतामणि प्रदान की। जो कौस्तुभमणि तथा सूर्य के समान दीप्तिमान थी। वह देखने, सुनने अथवा ध्यान करने पर भी मनुष्य को मनचाही वस्तु प्रदान करती थी। राजा चंद्रसेन चिंतामणि को कंठ में धारण करके जब सिंहासन पर बैठते थे। तब देवताओं में सूर्य नारायण की भाँती उनकी शोभा होती थी। चंद्रसेन के विषय में यह सब बात सुनकर समस्त राजाओं के मन में मणि को पाने की लालसा बढ़ गई। तथा उन सब ने बड़ी सी सेना लेकर राजा चंद्रसेन पर आक्रमण किया और उज्जयिनी को चारों तरफ से घेर लिया। अपनी पुरी को घिरी हुई देखकर राजा चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में गए। एवं दृढ़ निश्चय के साथ उपवास पूर्वक दिन रात शिवजी की आराधना में लगे रहे।
उन्हीं दिनों उस नगरी में कोई ग्वालिन रहती थी। जिसके केवल एक पुत्र था। वह विधवा थी वह उज्जयिनी में बहुत दिनों से रहती थी। वह अपने 5 वर्ष के बालक को लेकर मंदिर में गई। और राजा चंद्रसेन द्वारा की हुई महापूजा का दर्शन किया। शिव पूजन का आश्चर्यमय उत्सव देखकर उसने भगवान को प्रणाम किया। और पुनः अपने निवास स्थान पर लौट आई। ग्वालिन के उस बालक ने भी वह सारी पूजा देखी थी। अतः घर आने पर उसने कौतूहलवश शिवजी की पूजा प्रारम्भ की।
जो संसार से वैराग्य प्रदान करने वाली है। सुंदर पत्थर लाकर उसने घर से थोड़ी दूर पर एकांत स्थान पर रख दिया और उसी को शिवलिंग माना। और अपने हाथ से मिलने लायक जो कोई भी फूल दिखाई दिए उनका संग्रह किया। फिर उस बालक ने शिवलिंग को स्नान कराया और भक्ति पूर्वक पूजन किया। तत्पश्चात कृत्रिम अलंकार, चंदन ,धूप ,दीप और अक्षत आदि उपचारों से अर्चना करके मनःकल्पित दिव्य वस्तुओं से भगवान को नैवेद्य चढ़ाया।
सुंदर-सुंदर पत्रों और फूलों से बार-बार पूजा की। और भाँती-भाँती से नृत्य किया और बार-बार भगवान के चरणों में शीश झुकाया। तभी ग्वालिन ने अपने पुत्र को भोजन के लिए बुलाया। उसका मन तो पूजा में लगा हुआ था ।माता के बहुत बुलाने पर भी उसे भोजन करने की इच्छा नहीं हुई। तब उसकी मांँ स्वयं उसके पास आई। और उसे ध्यान में आंख बंद करके बैठा देख क्रोधित हुई ।और उसके हाथ पकड़कर खींचने लगी। इतने पर भी जब वह नहीं उठा। तब उसने क्रोध में आकर उसे खूब मारा। खींचने और मारने पर भी जब उसका पुत्र नहीं आया ,तब उसने शिवलिंग उठा कर दूर फेंक दिया। वह बालक! हाय !हाय करके रो उठा। रोष में भरी हुई ग्वालिन अपने बेटे को डांट कर पुनः घर में चली गई। भगवान शिव की पूजा को माता के द्वारा नष्ट हुआ देखकर वह बालक देव! देव! महादेव पुकारता हुआ मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसकी आंँखों से आंँसूओ की धारा प्रवाहित हो रही थी। जब उसे चेतना आई तब उसने अपनी आंँखें खोली। और देखा उसका यही निवास स्थान परम सुंदर शिवालय हो गया था।
मणियों के खंबे उस की शोभा बढ़ा रहे थे। उसके द्वार , किवाड़, फाटक सोने के हो गए थे ।वहांँ की भूमि 
 नीलमणि तथा हीरो की वेदिकाओ से सुशोभित थी।यह सब देख कर वह सहसा उठा। और उसका मन हर्ष से प्रफुल्लित हो उठा ।उसने समझ लिया कि यह सब शिवजी के पूजन का महत्व है। उसी के प्रभाव से यह सब हुआ है ।तत्पश्चात उस बालक ने अपनी माता के अपराध की शांति के लिए पृथ्वी पर मस्तक रखकर साष्टांग प्रणाम किया ।और कहा देव! उमापते! मेरी माता का अपराध क्षमा करें। वे आप के प्रभावो को नहीं जानती है। आप उन पर प्रसन्न होइये। यदि मुझमे आप के द्वारा उत्पन्न हुआ कुछ भी पुण्य है तो उससे मेरी 
माता आपकी दया प्राप्त करे।
इस प्रकार भगवान शंकर को प्रसन्न करके सूर्यास्त के समय वह बालक शिवालय से बाहर निकला। और उसने अपने शिविर को देखा वह इंद्र के नगर के समान शोभा पा रहा था। वहांँ सब कुछ सोने का हो चुका था। भवन में प्रवेश करके बालक ने देखा। उसकी मांँ बहुमूल्य पलंग पर बिछी हुई श्वेत रंग की शय्या पर निर्भय होकर सो रही है। उसने अपनी माता को जगाया। ग्वालिन बड़े वेग से उठी और अपने बालक को अपूर्व रूप में देख कर बड़ी प्रसन्न हुई। अपने पुत्र से शंकर जी की यह सब कृपा सुन कर ग्वालिन ने राजा को सूचना दी। राजा अपना नियम पूरा करके रात में वहांँ आए और ग्वालिन के पुत्र का प्रभाव जो शिव शंकर जी की कृपा से प्राप्त हुआ था देखा।
स्वर्णमय शिव मंदिर, रत्नमय शिवलिंग तथा मणि और माणिक्यों से जगमगाता हुआ ग्वालिन का महल देखकर राजा चंद्रसेन, पुरोहित और मंत्रियों के साथ आश्चर्य में पड़ गए। उन्होने नेत्र से प्रेम के आंँसू बहाते हुए ग्वालिन के उस बालक को हृदय से लगा लिया। शंकर जी की ग्वालिन के पुत्र पर कृपा की महिमा तेजी से फैली। और युद्ध में आए हुए उज्जयिनी नगर को चारों ओर से घेरे हुए राजाओ ने भी यह महिमा सुनी। शंकर जी की महिमा सुनते ही उनके मन से वैरभाव निकल गया। उन्होंने अपने हथियार डाल दिए। और राजा चंद्रसेन की आज्ञा से नगरी में प्रवेश करके भगवान महाकाल को प्रणाम करके राजा उस ग्वालिन के घर पर आए। वहाँ राजा चंद्रसेन ने उनका सत्कार किया।
उसी समय देवताओं द्वारा पूजित परम तेजस्वी हनुमान जी वहां प्रकट हुए।
उनके आते ही सभी राजाओं ने बड़े वेग से उठकर भक्ति भाव से उन्हें प्रणाम किया। तब हनुमान जी ने कहा राजाओ! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि इस गोप- बालक ने शनिवार को प्रदोष व्रत के दिन बिना मंत्र के भी शिव का पूजन करके उन्हें पा लिया। शनिवार को प्रदोष व्रत समस्त देहधारियों के लिए दुर्लभ है। कृष्ण-पक्ष आने पर तो वह और भी दुर्लभ है। गोप वंश की कीर्ति बढ़ाने वाला यह बालक सबसे अधिक पुण्यात्मा है इस वंश परंपरा की आठवीं पीढ़ी में महा यशस्वी नंद उत्पन्न होंगे। जिनके यहां साक्षात् नारायण उनके पुत्र रूप में प्रकट होंगे। आज से यह गोप नंदन संसार में 'श्रीकर' के नाम से विख्यात होगा। ऐसा कहकर हनुमान जी वहां से अंतर्ध्यान हो गए।

Monday, 30 April 2018

भोलेनाथ कृपा

स्कंद पुराण की एक कथा में महराजा श्वेत  और भोलेनाथ की महिमा का वर्णन है जो इस प्रकार हैं-
महाराजा श्वेत भगवान भोलेनाथ के बहुत बड़े भक्त थे। वे ब्राम्हण भक्त ,सत्यवादी ,शूरवीर और निरंतर शिव जी के भजन में तत्पर रहने वाले थे।वे धर्म के अनुसार अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते थे। इस तरह भगवान शिव शंकर की आराधना करते करते महाराज की सारी आयु बीत गई। भगवान भोलेनाथ का ध्यान करने के कारण उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं हुआ ना ही शरीर में कोई रोग उत्पन्न हुआ। उनके राज्य में सब लोग निर्भय रहते थे। एवं महाराजा श्वेत के राज्य में कभी किसी को दुख नहीं उठाना पड़ा। अपमान, महामारी ,दरिद्रता का कष्ट नहीं सहना पड़ा ।यह सब भोलेनाथ की कृपा से हुआ।
एक दिन की बात है राजा श्वेत भोलेनाथ की आराधना में लगे थे। उसी समय यमराज ने अपने दूतो को महाराज श्वेत के पास भेजा और उन को आज्ञा दी की राजा श्वेत की आयु पूरी हो गई है अतः उन्हें शीघ्र ले आओ।
दूतो ने यमराज की आज्ञा स्वीकार की। और राजा को लेने की इच्छा से भगवान शिव के मंदिर में आए। उनके हाथों में काल- पाश था। तथा वे आकृति से बड़े भयानक लग रहे थे। यमदूतों ने वहां आकर देखा महाराज गहरी समाधि लगाए भगवान भोलेनाथ के ध्यान में मग्न थे। उन्हें देखकर यमदूतों के मन में कुछ हलचल हुई और वह यमदूत यमराज की आज्ञा का पालन ना कर सके। यह सब जानकर यमराज स्वयं वहाँ पर आए।
उन्होंने राजा को ले जाने के लिए अपना दण्ड ऊपर को उठा रखा था। यमराज ने देखा कि महाराज श्वेत भगवान भोलेनाथ के चिंतन में मग्न है। उन्हें इस तरह देखकर यमराज के मन में हलचल हुई और वे अत्यंत व्याकुल हो गए। तभी प्रजा का विनाश करने वाले काल भी वहां आ गए। उन्होंने यमराज से पूछा- धर्मराज! क्या कारण है कि जो अभी तक तुम इस राजा को नहीं ले गए। तुम्हारे साथ जो यमदूत है वह भी कुछ डरे से प्रतीत हो रहे हैं।
तब यमराज ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया- यह राजा भगवान शिव के परम भक्त है अतः इन्हे ले जाना हमारे लिए अत्यंत कठिन है। भगवान भोलेनाथ जी के भय से हम पुतलो की भांति खड़े हैं।
यमराज की बात सुनकर काल देवता क्रोधित हो गए तथा राजा को मारने के लिए बड़े वेग से ढाल और तलवार उठाई। वे क्रोध में भरकर शिवालय में घुसे। उन्होंने देखा राजा भगवान भोलेनाथ का ध्यान कर रहे है। उन्हें देखकर काल अहंकारवश जैसे ही उनके पास गया। तभी भक्त वत्सल भगवान भोलेनाथ अपने भक्त की रक्षा करते हुए तीसरा नेत्र खोल कर काल को देखा।
 उनके देखते ही कालदेव तत्काल जलकर भस्म हो गए। महाराज श्वेत ने समाधि से उठ जाने के बाद धीरे से आंँख खोलकर देखा कि कालदेव अद्भुत रूप से जल रहे थे। राजा ने उन्हें देखकर भगवान भोलेनाथ से प्रार्थना की- सबके दुखों को दूर करने वाले शांत स्वरूप, स्वयंप्रकाश भगवान भोलेनाथ को नमस्कार है आप ही इस जगत के माता, पिता ,सखा ,बंधु, स्वामी ,ईश्वर है आपने यह क्या किया? किसको मेरे लिए जला दिया? यह कहकर महाराज श्वेत विलाप करने लगे। भगवान भोलेनाथ ने कहा- राजन् यह काल है, तुम्हारी रक्षा के लिए मैंने इसे जला दिया है।
राजा श्वेत ने पूछा- भगवन्! इसने ऐसा कौन सा कार्य किया था जिससे आपने इसे इतना बड़ा दंड दिया।
भगवान भोलेनाथ ने कहा- राजन्! यह संसार के समस्त प्राणियों का भक्षक है। इस समय यह तुम्हारे प्राण लेने के लिए आया था। अतः मैंने इसे जला दिया।
भगवान भोलेनाथ की बात सुनकर श्वेत ने कहा -भगवन! काल आपकी आज्ञा से ही सब को नियंत्रण में रखता है ।इस के डर से ही संसार सदा पुण्य कर्म का अनुष्ठान करता है इसलिए आप इस पर कृपा करके इसे शीघ्र ही जीवित कर दे। तब भोलेनाथ ने काल को पुनः जीवित कर दिया।
तभी राजा श्वेत ने काल को अपने हृदय से लगा लिया ।इस प्रकार चेतना लौटने पर काल देवता ने भगवान भोलेनाथ जी की स्तुति की।
काल का विनाश करने वाले देवेश्वर ! आप त्रिपुरासुर का संहार करने वाले हैं। आपने तो कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया है। आपने ही अद्भुत ढंग से दक्ष- यज्ञ का विनाश कर दिया था ।संपूर्ण देवताओं और असुरों को आप अपने में लीन करने के कारण आप के स्वरूप को लिंग कहा है आपको नमस्कार है !इस प्रकार काल ने भगवान भोलेनाथ की स्तुति की।
तब कालदेव,यमराज,यमदूतो के साथ भगवान भोलेनाथ और महाराज श्वेत को प्रणाम करके अपने निवास स्थान को गए । वहां उन्होंने सब दूतों को बुलाकर कहा- संसार में जो भी लोग उत्तम भक्ति भाव से सदा शिव का पूजन करते हैं वह साक्षात् भगवान के स्वरुप है। जो साधु पुरुष पंचाक्षर मंत्र का सदा जप करते है वे सब तुम्हारे द्वारा पूजनीय है। ऐसे लोगों को तुम कभी मेरे लोक में मत लाना। यमराज ने भी अपने सेवकों को ऐसा ही आदेश दिया। महाराज श्वेत काल से निर्भय हो गए ।और उन्होंने भगवान शिव का सानिध्य प्राप्त कर लिया।
 मनुष्य को चाहिए कि सदैव भगवान भोलेनाथ का ध्यान करें ।भगवान भोलेनाथ का सेवन, वंदन और पूजन करें।

Friday, 27 April 2018

विष्णुमाया

भविष्य पुराण के एक प्रसंग में भगवान श्री नारायण श्री नारद जी को विष्णुमाया का दर्शन कराते हैं।
किसी समय नारद जी ने श्र्वेत द्वीप में भगवान श्री नारायण का दर्शन किया। एवं साथ में उनकी माया को देखने की इच्छा प्रकट की ।नारद जी के बार-बार मनाने पर भगवान श्री नारायण उनके साथ जम्बू द्वीप में आए और मार्ग में एक वृद्ध ब्राम्हण का रूप ले लिया।
विदिशा नगरी में धन्य-धान्य से समृद्ध ,पशु पालन में तत्पर, कृषि कार्य को भली-भांँति करने वाला सरिभद्र नाम का एक वैश्य वहाँ निवास करता था। भगवान श्री नारायण एवं नारद जी सर्वप्रथम उसी के घर गए। उस वैश्य ने उनका यथोचित्त सत्कार किया और उनसे भोजन करने के लिए कहा।
यह सुनकर वृद्ध वेश धारण किए हुए भगवान श्री नारायण ने हंँसकर कहा-
तुम्हारा वंश बहुत आगे बढ़े ,तुम्हारी खेती और पशुधन की नित्य वृद्धि हो ,यह मेरा आशीर्वाद है। यह कहकर भगवान श्री नारायण व नारद जी वहां से चल पड़े।
मार्ग में गंगा जी के तट पर गांव में गोस्वामी नाम का एक गरीब ब्राह्मण रहता था। भगवान जी एवं नारद जी उस गरीब ब्राम्हण के पास गए। वह अपनी खेती आदि की चिंता में लगा था ।
भगवान ने उससे कहा- हम तुम्हारे अतिथि हैं और भूखे हैं अतः हमें भोजन कराओ। उस ब्राम्हण ने भगवान और नारद जी को अपने घर में लाकर स्नान एवं भोजन कराया व उत्तम सैय्या पर शयन आदि की व्यवस्था की।
 प्रातः उठकर भगवान ने ब्राम्हण से कहा- हम तुम्हारे घर में सुख पूर्वक रहें ।परमेश्वर करें कि तुम्हारी खेती निष्फल हो और तुम्हारे वंश की वृद्धि ना हो ।इतना कहकर वे वहाँ से चले गए। यह देखकर नारद जी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- भगवन् वैश्य ने आपकी कुछ भी सेवा नहीं की ।परंतु आपने उसे उत्तम वरदान दिया ।किंतु इस ब्राह्मण ने श्रद्धा से आपकी बहुत सेवा की, फिर भी आपने उसे आशीर्वाद के रूप में शाप ही दिया। ऐसा आपने क्यों किया?
भगवान ने उत्तर दिया -यह वैश्य अपने पुत्र- पौत्रों के साथ कृषि- कार्य में लगा हुआ है। हमने ना तो उसके घर में विश्राम किया ना ही भोजन किया। इस ब्राह्मण के घर में भोजन और विश्राम किया। इस ब्राह्मण को ऐसा आशीर्वाद इसलिए दिया। क्योंकि जिससे यह जग जंजाल में ना फंस कर मुक्ति को प्राप्त कर सकें।
फिर भगवान श्री नारायण ने नारद जी को कान्यकुब्ज के सरोवर में स्नान कराकर जग जंजाल की माया में लिप्त कर दिया ।फिर कुछ समय बाद नारद जी को अपने स्वाभाविक रूप में लाकर भगवान अन्तर्हित हो गये ।जिससे नारद जी ने अनुभव किया। कि इस माया के प्रभाव से संसार के जीव ,पुत्र, स्त्री ,धन आदि में आसक्त हो रोते गाते हुए अनेक प्रकार की चेष्टाएं करते हैं ।अतः मनुष्य को इससे सावधान रहना चाहिए।

Wednesday, 25 April 2018

आत्मावस्था

आत्मावस्था- 

      सबके हृदय में स्थित आत्मा ब्रह्म है जिसके 4 अंश है जो निम्न है,
१. जागृत अवस्था
२. सुषुप्तावस्था
३. स्वप्नावस्था
४. तुरिया अवस्था
जागृत अवस्था वह अवस्था होती है जिसमें हम जीते हैं इसमें ही इंसान मोह माया से बंधा होता है, इच्छाओं से बंधा होता है, जागृत अवस्था मनुष्य के पास मात्र 10 से 15% है बाकी मनोविज्ञान के मुताबिक 85 से 90% भाग सुप्तावस्था तथा स्वप्नावस्था है।
मनुष्य का मन तीन भाँगो में बँटा होता है,
१. चेतन मन
२. अवचेतन मन
३. शुद्ध चेतना
चेतन मन यानी जागृत अवस्था अवचेतन मन यानी स्वप्नावस्था यश सुषुप्तावस्था जिसको हम अवचेतन मन कहते हैं, जैसे कि हमें लगता है जो हम सोचते हैं वही हमारे अवचेतन मन में दिखाई देने लगता है, परंतु मनोविज्ञान का यह कहना है कि जागृत अवस्था में जो भाव उत्पन्न होते हैं उसकी पुनरावृत्ति स्वप्नावस्था में होती है, जागृत अवस्था में जिन इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती वही हमारे अवचेतन मन में दब जाती है और सपने उसकी पूर्ति हो जाती है।
कुछ लोगों का मत यह है कि हमारी आत्मा स्वप्नावस्था में भ्रमण करती रहती है, जो कुछ भी वह देखती है जागृत अवस्था में उसका आभास हमें हो जाता है, कुछ लोगों का मत यह भी है कि सपने कभी-कभी सच होते हैं, इससे यही पता चलता है कि अनंत भावनाओं का क्षेत्र अवचेतन मन है।
अब हम शुद्ध चेतना के बारे में जानते हैं-
चेतना की शांत अवस्था का नाम शुद्ध चेतना है, जो कि विचारों का स्त्रोत है मन, बुद्धि, अहंकार यह सब विचारों की विभिन्न स्थितियां है, विचार हमेशा हमारी आंखों के आगे तैरते रहते हैं।
अब हम जानते हैं तुरीया अवस्था के बारे में- हम हर वक्त कुछ ना कुछ सोचा करते हैं  जागृत अवस्था में भी, स्वप्नावस्था में भी, इन विचारों को वश में करने के लिए केवल एक ही साधन है वह है ध्यान, ध्यान एक ऐसी विधि है, जिससे हमें ब्रह्म जगत का विस्मरण हो जाता है, ध्यान में हम स्थूल मन को सूक्ष्म होते होते सूक्षमाति सूक्षम की ओर अग्रसर होते हैं, जब हम सूक्ष्म में पहुंच जाते हैं तो स्वयं में स्थित हो जाते हैं, जिसे महर्षि पतंजलि योग अवस्था कहते हैं, जिसे तुरिया अवस्था या चतुर्था अवस्था कहते हैं।

राजा चोल और विष्णुदास की कथा

एक समय की बात है एक चोल नामक चक्रवर्ती राजा थे। राजा चोल जब भूमंडल पर शासन करते थे। उस समय कोई मनुष्य दरिद्र, दुखी, पाप में मन लगाने वाला न...